गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

अनामिका का 'एक ठो शहर : एक गो लड़की'

शहर जन्म लेते हैं , पता नहीं किस कोख से और किस पल में चुपचाप। शहर के जन्म लेते ही शहर की माँ मानो बिला जाती है। फिर शहर अपनी 'माँ' को खोजते हुए ही बड़ा होता है, फैलता है, लेकिन 'माँ' ... यह नहीं की 'माँ' अब नहीं होती। वो होती है बल्कि और अधिक सक्रिय, और अधिक चौकन्नी और देखती रहती है अपने ही जाये शहर को कहीं बनते हुए और कहीं ढहते हुए भी। शहर में कुछ भी ढहना 'माँ' को आहत कर जाता है, 'माँ' बेचैन होती है। शहर की इस 'माँ' को हेरने-ताकने और बचाने की गाथा है अनामिका का 'एक ठो शहर : एक गो लड़की' , एक शहरगाथा। ''वैसे जो चीजें नजर नहीं आतीं - वे हो तो सकती हैं ; ख्वाबों- ख्यालों में ! स्मृतियों में और विस्मृतियों में भी !'' कहते हुए अनामिका पूरे शहर की धड़कन सुनती हैं, नब्ज टटोलती हैं और उन्हें लगता है किया शहर बुखार में तप रहा है , इसे 'माँ' के शीतल-स्निग्ध स्पर्श की जरूरत है और वो 'माँ' को , शहर के शहरपन को अर्थ देनेवाली स्थितियों को उकेरने लगती हैं।
पूरी किताब एक कविता है, एक लम्बी कविता। कविता की चपलता, गति, लहर, उतर-चढ़ाव और बंधन सभी कोनों से कविता। कविता का उठान, कविता का विन्यास- वितान और कविता की फिसलन सभी कुछ है इसमें। कहना तो यह चाहिए की यह फिसलन ही इसे कविता बनाती है।

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