बुधवार, 29 अप्रैल 2009

हिन्दी समाज में प्रकाशन...(१)

साहित्य और साहित्यकार की स्थिति को प्रभावित करनेवाला एक प्रमुख कारक प्रकाशन व्यवसाय है। इसलिए साहित्य और साहित्यकार की स्थिति का विवेचन प्रकाशन व्यवसाय की चर्चा के बिना अधूरा ही रहेगा। प्रकाशकों का सारा ध्यान आज किताबों को जैसे-तैसे बेचने पर है इसलिए जाहिर है बाज़ार में बिकनेवाली किताबों को ही छापने पर है। प्रकाशकों के बीच से इस सवाल का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है, या कहें कि उसका दायरा बहुत छोटा हो गया है कि वे क्या छापने जा रहे हैं। आज इस सवाल का मतलब उनके लिए 'बाज़ार में चलनेवाली है कि नहीं' इसी तक सीमित हो गया है। इतना ही नहीं कई बार तो प्रकाशक ही यह भी तै कर देते हैं कि बाज़ार में कौन सी किताब बेचीं जायेगी। इस मामले में प्रकाशकों के एकाधिपत्य का आलम यह है कि लेखक-रचनाकार पहले तो किताब लिखे, फिर उसे छपवाने के लिए प्रकाशकों के पीछे दौडे, यहाँ तक कि पैसा भी ख़ुद ही लगाए और छप जाने के बाद लेखक ही उसके बेचने की व्यवस्था भी करे। इस भीषण चक्रव्यूह में घिरे रचनाकार से हम किस नैतिकता के तहत छल-छद्म से लड़ने और समाज के कदम से कदम मिलाकर चलने की और समाज कि चिंता ही करने की अपेक्षा कर सकते हैं।
प्रकाशकों की सबसे बड़ी चिंता सरकारी संस्थाओं द्वारा किताबों की थोक में खरीद से सम्बंधित है। यह कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि कई किताबों को तो छापा ही इसलिए जाता है कि उन्हें पुस्तकालयों में खपाया जा सके। और तो और प्रकाशक ही लेखकों के पास अब यह प्रस्ताव भी भेजने लगे हैं कि अमुक तारीख तक आप इस विषय पर एक किताब लिख दीजिये, अभी इसका मार्केट है और ऐसे लेखकों कि भी कमी नहीं है जो प्रकाशक के निर्देशानुसार तै समय पर सामग्री उन्हें उपलब्ध करा देते हैं। मानो किताब न होकर कोई माल हो। जब भी कोई चर्चित वाकया होता है तो उस विषय पर तुरत ही किताबों की लायन लग जाती है। आईपीएल मैचों के इस दौर में देखा जा सकता है कि कई किताबें ऐसी आयीं हैं जो क्रिकेट का इतिहास-पुराण बता रही हैं।

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

हिन्दी समाज में साहित्यकार...

आज के हिन्दी समाज में साहित्यकारों की स्थिति का अनुमान करने के लिए आइये जरा एक नजर उनकी आमदनी के श्रोतों पर डालें। दरअसल कोई भी सच्चा लेखक अपने लेखन को केवल जीविका का साधन नहीं समझता, लेकिन उसे लिखने के लिए जीने की जरूरत तो होती ही है। इसलिए उसे जीविका के साधन की भी आवश्यकता पड़ती है। हिन्दी समाज जो इन दिनों अपने आर्थिक पिछडेपन के बावजूद कुल मिलाकर, कम से कम पढ़े-लिखे तबके में ही, जैसे हो वैसे धन कमाने की अंधी दौर में शामिल है, वह इस बात की रत्ती भर भी चिंता नहीं करता कि उसके साहित्यकारों का प्रतिदान इतना कम क्यों है? जिस समाज के प्रति जिम्मेदारी का साहित्य में लगभग मानदंड के रूप में इस्तेमाल किया जाता है उसी समाज को न तो साहित्य में रूचि है , न ही उसके रचनेवालों की कोई परवाह। साहित्यकारों के कल्याण, आवास, पेंशन, सामाजिक सुरक्षा, रोयल्टी आदि को लेकर न तो समाज की दिलचस्पी है, न ही लेखक संगठनों में चिंता है और न ही सरकारी एजेंशियों को। आज कि स्थिति यह है कि प्रायः सभी अन्य कला माध्यमों - चित्रकला, संगीत, नृत्य, मूर्तिशिल्प- के मुकाबले साहित्य में रायल्टी और पारिश्रमिक बेहद डेमी रफ़्तार से बढे हैं। इसका एक और दुखद पहलू यह है कि अंग्रेज़ी में लिखने से अधिक रूपया मिलता है यह हिन्दी जगत की सामान्य समझदारी है। भारत के ही कुछ अंग्रजी लेखकों को, जिनमे से कुछ को छोड़कर अधिकांश अन्य भाषाई लेखकों की तुलना में खासे मीडियाकर ठहरते हैं- को भी लाखों की अग्रिम रायल्टी मिल जाती है जबकि हिन्दी के बड़े लेखकों को भी यह नसीब नहीं। आज के अधिकांश साहित्यकार जीवनयापन के लिए कुछ-न-कुछ और करने पड़ मजबूर हैं क्योंकि केवल साहित्य लिखकर इतना नहीं कमाया जा सकता कि गरिमा और सुविधा के साथ जीवन यापन किया जा सके। इस समस्या का नैतिक आयाम यह है कि साहित्यकार जाने-अनजाने ऐसे-वैसे समझौते करने और चुप्पियाँ बरतने के लिए मजबूर हो जाता है।

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

हिन्दी समाज में साहित्य ...

आज का हिन्दी समाज एक ऐसा समाज है जिसमें एक तरफ वैश्वीकरण का शोर है तो दूसरी तरफ स्कूलों की ढहती इमारतें हैं, एक तरफ चमक-दमक और ऐश्वर्य है तो दूसरी तरफ पेट भरने की जुगत में पिसती अधिसंख्य आबादी है, एक तरफ 'ब्रांडेड फैशन' और उसके प्रचार में लगी विशालकाय होर्डिंगें हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं चौराहों पर मजदूरों की फौज काम की तलाश में मानो उन्हीं होर्डिंगों का मुंह चिढा रही हो, एक तरफ गरीबों के सरकारी कोष से अरबों का गबन है तो दूसरी तरफ अमीरों के बटुए भी मारे जा रहे हैं, एक तरफ संस्कृति की रक्षा के नाम पर कलात्मक प्रदर्शनियां हैं तो दूसरी तरफ लोकगीत गानेवाले कलाकार गुमनामी के अंधेरे में खोते जा रहे हैं, एक तरफ साहित्य में शाश्वत और सार्वभौम का छल है तो दूसरी तरफ क्रांति के मोहक सपने भी....
यह कहना कुछ लोगों के लिए असुविधाजनक तो हो सकता है लेकिन दुःख इस बात का है कि इस बात को लेकर किसी को भी अफसोस नहीं है कि आज के साहित्य का नियंता बाजार बन चुका है। बहुत विस्तार में न भी जाएँ तो अब यह समझना मुश्किल नहीं है कि बाजार जिसमें एक ही नियम चलता है खरीदने और बेचने का। इस वजह से साहित्य की दुनिया भी बिल्कुल एकरस हो गई है। बाजार के प्रतिकूल प्रभाव से साहित्य और संस्कृति की दुनिया में व्याप्त अनेकरूपता और विशिष्टता का लोप हो गया है और एक नीरस एकरूपता कायम है जिससे नई रचनाशीलता कुंद होती है।
और सब बातों को छोड़ भी दें तो केवल साहित्यिक विधाओं की वर्तमान स्थिति से इसे बेहतर समझा जा सकता है। कविता कि सार्थकता और निरर्थकता को लेकर जितनासवाल आज खड़े किए जा रहे हैं उनसे कविता मात्र पर संकट गहरा रहा है। यूँ ही नहीं है कि आज के प्रायः सभी कवि अपनी कविता में कविता के ही जीवित बचे रहने की घोषणा करते दिखाई पड़ते हैं। मार्क्स ने कहा भी था कि पूंजीवादी उत्पादन कला और कविता का दुश्मन है। वस्तुतः आज के हिन्दी समाज में कविता के सामने एक बड़ा संकट संस्कृति के उद्योग का विस्तार है। संस्कृति के उद्योग से उपभोग की संस्कृति विकसित होती है और उपभोग की संस्कृति केवल उपभोग की वस्तुएं ही पैदा नहीं करती बल्कि उपभोग की इच्छा भी पैदा करती है। इसी कारण से आजकल कविता जैसी विधा सांस्कृतिक जीवन के हाशिये पर जीने को मजबूर है।
कहानी और उपन्यास का क्षेत्र आज भी अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित है क्योंकि उसमें पूंजीवादी सभ्यता और उपभोग की संस्कृति के अनुरूप रोमांस, उत्सुकता, आश्चर्य और उत्तेजना के लिए अधिक अवकाश है। जहाँ तक नाटकों की बात है तो यह दो टूक लहजे में कहा जा सकता है कि आज नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं। बाजार और बाजार की संस्कृति की सबसे ज्यादा मार नाटकों पर ही पड़ी है और पूंजीवादी सभ्यता की प्रतिनिधि कला फिल्म के सामने वह कहीं भी नहीं टिक पा रहा। संभवतः इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण पूंजीवादी सभ्यता से इसके अनिवार्य विरोध में निहित है। वस्तुतः नाटक सामूहिकता की अपेक्षा करता है, जिसमे विभिन्न कलाओं का आपसी संयोग होता है और इन कारणों से वह स्वभावतः ही लोकतान्त्रिक होता है। अब किसी लोकतान्त्रिक स्वाभाव की विधा का पूंजीवादी अधिनायकतंत्र में कैसे गुजारा हो सकता है।
यह नही है कि इसका प्रभाव केवल रचना पर पड़ा है बल्कि आज की हिंदी आलोचना भी इन विपरीत परिस्थितियों से अचुती नहीं है। आज के हिन्दी आलोचकों के बारे में यह आम धारणा है कि जो कविता, कहानी, उपन्यास आदि नहीं लिख सकता और लेखक कहलाना चाहता है वही आलोचना के क्षेत्र में आता है। आज आलोचना की एक निश्चित सी शब्दावली हो गई है - मिटटी से जुडाव, द्वंद्व, टकराव, संघर्ष, सामंजस्य, जिजीविषा, व्यापकता, सरोकार आदि - जिसके मध्यम से हम आलोचना के असामाजिक हो जाने का सहज ही अनुमान कर सकते हैं।

सोमवार, 30 मार्च 2009

कुछ छोटी कवितायें...

आने पर
दादी ने कहा
मेरी पोथी तो देना
मैंने कहा
अभी जा रहा हूँ सुनने
परिवार की अवधारणा पर
एक व्याख्यान
आने पर दूंगा।

क्या यह उसका आना न था ?
वह आया
बिना पूछे
मेज पर रखी
गाड़ी की चाबी लेकर चला गया
कहते हुए
आ रहा हूँ
क्या यह उसका आना न था ?

जीवन
जीवन क्या है?
जीना किसे कहते हैं?
गंभीर बहस जारी है
उनके बीच
जो जी चुके
पर जीना न जान सके।

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

कविता का वर्त्तमान : कुछ नोट्स

युवा पीढी के रचनाकारों के बारे में बात करते हुए प्रायः कहानियों की ही चर्चा होती है। कहानियों को ही आधार बनाकर इस नई रचनाशीलता के मनोविज्ञान को समझाने-बताने की कोशिश की गई है। कुछ चर्चा है भी तो नसीहतों की भाषा में। जबकि ये कवितायें अब इतनी बचकानी नहीं हैं कि इन्हें इस प्रकार की शुरूआती नसीहतें दी जायें। अपने समय की बेहद सतर्क और चौकन्नी कवितायें हैं ये। इन कविताओं की हमसे एकमात्र अपेक्षा यह है कि हम इन्हें किनारे से, कुछ बचते हुए से देखकर न गुजरें बल्कि इनके भीतर पैठें और नजदीक से देखें कि आज के ये युवा कवि अपने से पहले के कवियों के साथ संबंधों की निरंतरता का निर्वाह किस ढंग से करते हैं।
एक बड़ी विशेषता इन कविताओं की यह है कि इन्हें पढने से पता चलता है कि ये कवितायें किस उम्र के कवियों ने लिखी हैं। पता चलने का कारण यह है कि इनमें से अधिकांश कवितायें स्वयं अनुभव की हुई, आत्मानुभूति की कवितायें हैं और इसीलिए एक उम्र विशेष की अनभूतियों की कवितायें हैं। उम्र विशेष की अनुभूतियों से सम्बंधित होने के कारण ही जीवन-जगत-प्रकृति के साथ इनका सम्बन्ध वस्तुपरक न होकर अनुभवपरक है। इन कविताओं की यह विशेषता है कि यहाँ अनुभूतियाँ हैं और अनुभूतियों की समर्थ अभिव्यक्ति भी है किंतु कहीं से भी अनुभूतियों के रूपांतरण की कोशिश नहीं है। यही कारण है कि इन कविताओं में कवियों के एन्द्रिक आत्मसातीकरण की जितनी झलक मिलती है उतनी तार्किक या बौद्धिक आत्मसातीकरण की नहीं। एन्द्रिक आत्मसातीकरण में एक प्रकार की तुलना करने की प्रवृत्ति अधिक होती है। एन्द्रिकता से तार्किकता की तरफ प्रस्थान के मध्यम से ही निजी अनुभव का सार्वजनीन अनुभव में रूपांतरण सम्भव है।
दूसरी तरफ ऐसा भी है कि इस प्रकार की एन्द्रियता की वजह से ही तमाम छोटी-छोटी और मामूली वस्तुएं जो पहले कविता के क्षेत्र से बाहर समझी जाती थीं, अब कविता का विषय बनने लगी हैं। इस नजरिये से ये कवितायें साधारण मानव की केवल साधारण अनुभूतियों की ही कविता नहीं है बल्कि साधारण वस्तुओं की भी कविता है। यह और बात है कि साधारण विषय- वस्तु को आधार बनाकर भी इन कवियों ने असाधारण काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया है। इनकी काव्य-प्रतिभा की असाधारणता इस बात में है कि इनकी कविता समझी जाने से पहले संप्रेषित हो रही है। पुराने शब्दों और उनके प्रचलित अर्थों के माध्यम से ही इन कवियों ने मौलिक प्रभाव छोड़नेवाली कवितायें लिखी हैं। इन कविताओं के प्रमाण से कहा जा सकता है कि मौलिकता न तो शब्दों में होती है और न ही अर्थ में बल्कि उनके विन्यास में होती है।
अनुभूति की निजता और एन्द्रिकता का ही यह प्रभाव है कि इन कवियों की नजरें अपने स्थानीय परिवेश पर जाकर टिक जाती है। यह और बात है कि इनके यहाँ स्थानीयता का फैलाव भी है। इनके स्थानीय परिवेश का दायरा स्वयं से शुरू होकर परिवार, गांवों से होते हुए महानगर तक जाता है किंतु महानगर में भी इन कवियों की पहली चिंता अपने गाँव-घर को खोज निकालने की है। यही कारण है कि न तो इन कवियों के यहाँ गाँव-घर के प्रति रोमांटिक किस्म की भावुकता है और न ही शहरों की चकाचौंध में इनकी आँखें ही चुंधियाती है।
इन सबकी चिंता एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में अपने परिवेश के बदलते चेहरे की चिंता है। कुछ है जिन्हें ये कवि बचाना चाहते हैं, कुछ और है जिनके न होने की आशंका से ही ये डर रहे हैं, कुछ और भी है और इतना अधिक है कि इनके लिए परेशानी और झुंझलाहट पैदा कर रही है। इस प्रकार की चिंता, डर, ऊब और खीझ इनकी सचेतनता का प्रमाण है। इनकी चिंताएं वास्तविक दुनिया और उसके वास्तविक संकटों से उत्पन्न वास्तविक चिंताएं हैं और इनका कोई वास्तविक समाधान इन्हें नहीं दिख रहा।
परिवेश से इस प्रकार की इनकी निकटता के ही कारण इनकी कविताओं में निपट अकेलापन नहीं है। इसी से इनके लिखने की वजहें भी कुछ अलग हैं। वस्तुतः जहाँ अकेलापन होता है वहां स्वयं अकेलापन ही लिखने का एक कारण बन जाता है। इन कवियों के यहाँ कविता लिखने की वजहें इनकी उम्र की स्वाभाविक आकांक्षाओं से उपजी हैं। ये कवि जीवन की विषमताओं को दूर करना चाहते हैं। विषमताओं को दूर करने की इनकी आकांक्षा ही इन्हें कच्ची-पक्की सच्चाइयों की तरफ ले जाती है बनिस्पत कि सुविधावादी मुलायम रस्ते के। इस नजर से इनकी कवितायें पूंजीवादी मानवविरोधी काव्यशास्त्र के विरोध का खुला दस्तावेज है। बाजार के दबाव ने अपने हित में संस्कृति का जिस प्रकार से अनुकूलन किया है उसके प्रतिपक्ष में अपनी दमदार उपस्थिति दर्जा कराती है ये कवितायें। न केवल बाजार की चालाकियों की बल्कि सत्ता और बाजार की बेपरवाह दुरभिसंधियों की भी स्पष्ट पहचान है इन नए कवियों को।

सोमवार, 23 मार्च 2009

हिन्दी आलोचना में युवा उपस्थिति

आज का हिन्दी जगत युवा आलोचकों से खूब परिचित है और उनकी समझदारी पर रीझा हुआ भी। कहने को कह सकते हैं कि हिन्दी आलोचना का यह युवा काल है। दूसरी तरफ युवाओं के बीच से ही यह बात भी उभरकर आ रही है कि हिन्दी में आलोचना की संस्कृति का अभाव है। यह एक अलग बहस का विषय है कि यह शिकायत वाजिब है या कि गैरवाजिब। सोचने की बात यह है कि आलोचना कि संस्कृति के अभाव से उनका आशय क्या है? मेरी समझ से दो बातें हैं जिनकी बदौलत आलोचना की संस्कृति का निर्माण होता है- पहली बात है आलोचना के अधिकार की और दूसरी बात है आलोचना के विवेक की। इसलिए इन दोनों ही बातों के अभाव में हम आलोचना की संस्कृति के अभाव का कारण भी देख सकते हैं। बतौर एक पाठक हमें आलोचना करने का अधिकार है और हमारी इस आलोचना को विवेकसम्मत होना चाहिए।
आज की हिन्दी आलोचना में हम एक साथ ही दो विरोधी स्थितियां पाते हैं। एक तो यह कि आज कवियों की दुनिया, कहानीकारों की दुनिया या यों कहें कि रचनाकारों की दुनिया और आलोचकों की दुनिया में पर्याप्त फासला है। इस फासले की वजह से ही आलोचना और आलोचकों का रचना तथा रचनाकारों पर कोई सीधा- सार्थक हस्तक्षेप नहीं है। इस बात की कोई चिंता भी नहीं है। यही कारण है कि आलोचना की भूमि पर विधाओं की आपसी साझेदारी में भी कमी आई है। सीधे कहें तो कह सकते हैं कि आलोचना की रचनात्मकता का लोप होता जा रहा है। यही वजह है कि रचनाकार आलोचना में केवल अपना नाम खोजता है। यदि उसका नाम है ही तो वह क्योंकर पढ़े और यदि नहीं है तो क्यों पढ़े?
एक स्थिति ऐसी भी है कि आज के युवा कवि-कहानीकार स्वयं आलोचना के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। विशुद्ध आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय युवाओं कि संख्या बहुत कम है। हम जानते हैं कि यह प्रवृत्ति छायावाद के दौर में थी, बाद के नई कविता के दौर में भी एक सीमा तक थी। इसका कारण था रचनाकार के मनोनुकूल आलोचना का न होना। केवल अपने अनुकूल आलोचना की भूख के साथ आलोचना में सक्रिय रचनाकारों का बड़ा गहरा असर आलोचना विधा पर दिखाई देता है। लगभग इसी बात को कहते हुए एक कवि-आलोचक ने लिखा है -''जब दृश्य पर परस्पर विरोधी अनेक रचना द्रिस्तियाँ एक साथ सक्रिय हों तो अपना पक्ष रखने का नैतिक दबाव भी कवियों के आलोचना लिखने की एक वजह बीते दौर में बना है। फिलहाल ऐसा कोई दबाव नही है तो इसकी वजह यही है कि रचनात्मक विरोध नहीं विकसित हो पा रहे हैं और असहमतियां खीझों में बदल जा रही हैं।''
युवाओं के साथ दो बातें होती हैं। एक तो उनमें स्मृति और अनुभव की व्यापकता का एक सीमा तक अभाव होता है, जाहिर है उम्र के कम होने कि वजह से ही। अनुभव की व्यापकता के अभाव से उनमें कल्पना की व्यापकता का भी अभाव होता है। ये दोनों ही चीजें आलोचना के लिए बेहद जरूरी चीजें हैं। इनमे से कल्पना की व्यापकता का अभाव तो कुछ आलोचकों की प्रतिभा के पीछे चिप जाता है किंतु अनुभव की व्यापकता के अभाव की पूर्ति के लिए आलोचक उद्धरण शैली अपनाते हैं। अध्ययन की व्यापक और उद्धरणों की भरमार से स्मृति और अनुभव का बौनापन छिपाया जाता है। नतीजा सामने है आलोचना केवल आलोचना की आलोचना बनकर रह गई है।
युवा आलोचना का दायरा अक्सर समसामयिक होता है किंतु समसामयिकता को साधने के लिए जिस संतुलन की जरूरत होती है, उसे पाना आसान नहीं होता। समसामयिकता कई बार अराजक भी होती है। वह इस कारन से कि उसमे प्रसंसा भाव और पहचान कि प्रधानता होती है। प्रसंसा करने के लिए मजबूत निर्णयों और यथोचित मानदंडों की जरूरत होती है। सावधानी यहीं चाहिए। इस सावधानी के अभाव में आलोचना के पांडित्य प्रदर्शन मात्र बनकर रह जाने का खतरा होता है। इसी वजह से आलोचना की भाषा कई बार पत्रकारिता या कि ऍफ आई आर की भाषा हो गई है। पत्रकारिता की भाषा में हमेशा निष्कर्ष पहले होता है या कहें कि हावी होता है और तफसील उसके गिर्द जबकि साहित्यिक आलोचना में तफसील से ही नतीजे निकलते हैं।

बुधवार, 18 मार्च 2009

'रंगों के पीछे रंग'

'रंगों के पीछे रंग '
मैं बच्चा था
सिर्फ़ सफेदी पहचानता था
दांतों की नहीं, दूध की।

कुछ दिनों के बाद
मैंने हर रंग को छुआ
फिर भी वे रंग मुझसे अन्छुए ही थे।

जानता था केवल
अपने गुब्बारे का गुलाबी होना
अधिक से अधिक
उसमे रखे रोटी का रंग
और उसके ब्लैक एंड व्हाइट होने पर हंसता था।

फिर देखा मैंने
अपना ही लाल खून
गिल्ली की एक चोट से।

घास के मैदानों में देखी हरियाली
अछा लगा, देखता रहा।


आज! अब मैं सभी रंग पहचानता हूँ
जानता हूँ उनकी रंगीनी
अब मेरे लिए सफेदी का वही मतलब नहीं है
क्योंकि देख लिया है मैंने दूध से वंचित बच्चों को।

अब रोटी का वही पहलेवाला रंग मुझे नहीं खींचता
उसके ब्लैक एंड व्हाइट होने के
पीछे की सफेदी और कालिमा मुझे करने लगी है परेशान
क्योंकि सामना हो चुका है मेरा रोटी-रोटी रटते भूखों से।

ख़ुद का ही लाल खून अब मुझे पानी दीखता है,
जबसे देखा है मैंने
साथ चलते को मारा जाना चाकू
और निकलना खून की धार का।

मेरे लिए अब हरियाली भी वैसी न रही
क्योंकि समझ चुका हूँ मैं की
जिनकी बदौलत दिखती है हरियाली
ख़ुद हरियाली उनसे koson दूर है।

अब मैं रंगों के पीछे का रंग
देखने लगा हूँ।


गुरुवार, 12 मार्च 2009



तुम से…

यह मानने में हमें कोई परेशानी नहीं
कि हम अपना सब कुछ
जंगल से ही पाते हैं
लेकिन,
यह इतना बड़ा कारण तो नहीं
कि तुम हमें जंगली कहकर बुलाओ।

माना कि हमारी भाषा
नहीं अँटती ठीक-ठीक
तुम्हारी बनाई
भाषा की परिभाषा में
लेकिन,
इसी वजह से
तुम हमें मूक समझो
यह तो अच्छा नहीं ।

हम नहीं जानते
कैसे बना लेते हो तुम
चमकीले-चटख रंग
न जाने किस चीज से बनते हैं
जिसे तुम ब्रुश कहते हो
किन्तु, हमने अपनी दीवारों पर
जो छवियाँ थापी हैं
उन्हें तुम चित्र न कहना चाहो, न सही
उन पर हँसना तो ठीक नहीं ।

ठीक है कि हमें नहीं है जरूरत
जिसे तुम ‘अण्डरगारमेण्ट’ कहते हो
टाय-रूमाल कहते हो
जुराबें-मोजे कहते हो
चल जाता है
चला लेते हैं हम काम
कपड़े के एक ही टुकड़े से
मगर, यह ऐसी भी बात नहीं
कि तुम हमें असभ्य कहो ।

तुमने बनाए हैं
मंदिर-मस्जिद-गिरजे
अपने-अपने धर्म के हिसाब से
हमने तो
पहाड़ को, नदी को, जंगल को ही
माना भगवान क घर
लेकिन, इतने से ही तो हम
विधर्मी नहीं हो जाते ।

हम नहीं जानते
तुम्हारे उस सैण्डविच के बारे में
क्या होता है, कैसा स्वाद
पिज्जा और बर्गर का
पता नहीं
कैसे सुहाता है तुम्हें
खाते हुए भी छुरियों का साथ
हमें तो भात भर मिल जाए
भाजी मिले न मिले, बहुत है
आखिर, मनुष्य बने रहने के लिये
खाना जरूरी है, न कि बर्गर खाना
लेकिन तुम यह क्योंकर मानोगे ?

तुम्हें भाषा नहीं
तुम्हारी भाषा चाहिए ।
तुम्हें सभ्यता नहीं
तुम्हारी सभ्यता चाहिए ।
तुम्हें मनुष्य नहीं
तुम्हारे जैसा मनुष्य चाहिए ।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

अनामिका का 'एक ठो शहर : एक गो लड़की'

शहर जन्म लेते हैं , पता नहीं किस कोख से और किस पल में चुपचाप। शहर के जन्म लेते ही शहर की माँ मानो बिला जाती है। फिर शहर अपनी 'माँ' को खोजते हुए ही बड़ा होता है, फैलता है, लेकिन 'माँ' ... यह नहीं की 'माँ' अब नहीं होती। वो होती है बल्कि और अधिक सक्रिय, और अधिक चौकन्नी और देखती रहती है अपने ही जाये शहर को कहीं बनते हुए और कहीं ढहते हुए भी। शहर में कुछ भी ढहना 'माँ' को आहत कर जाता है, 'माँ' बेचैन होती है। शहर की इस 'माँ' को हेरने-ताकने और बचाने की गाथा है अनामिका का 'एक ठो शहर : एक गो लड़की' , एक शहरगाथा। ''वैसे जो चीजें नजर नहीं आतीं - वे हो तो सकती हैं ; ख्वाबों- ख्यालों में ! स्मृतियों में और विस्मृतियों में भी !'' कहते हुए अनामिका पूरे शहर की धड़कन सुनती हैं, नब्ज टटोलती हैं और उन्हें लगता है किया शहर बुखार में तप रहा है , इसे 'माँ' के शीतल-स्निग्ध स्पर्श की जरूरत है और वो 'माँ' को , शहर के शहरपन को अर्थ देनेवाली स्थितियों को उकेरने लगती हैं।
पूरी किताब एक कविता है, एक लम्बी कविता। कविता की चपलता, गति, लहर, उतर-चढ़ाव और बंधन सभी कोनों से कविता। कविता का उठान, कविता का विन्यास- वितान और कविता की फिसलन सभी कुछ है इसमें। कहना तो यह चाहिए की यह फिसलन ही इसे कविता बनाती है।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

त्रिलोचन का आखिरी संग्रह 'मेरा घर'

जीवन के आखिरी हिस्से में कोई कवि क्यों घर लौटता है , कवि ही नहीं कोई व्यक्ति अपने घर क्यों लौटता है? निराशा में , हताशा में , हर जगह से ठुकराए जाकर , विकल्पहीनता और मजबूरी में या मोहग्रस्तता और कमजोर मनःस्थिति में। ये सभी कारण हो सकते हैं , पर क्या इतने ही ? केवल इतनी बात नहीं हो सकती। नागार्जुन - त्रिलोचन का घर लौटना 'लौट के बुद्धू का घर आना' नहीं है। इन कवियों ने उस अर्थ में कभी घर छोड़ा ही नहीं, जहाँ भी गए घर को लादे-लादे गए। इसलिए नागार्जुन -त्रिलोचन की उम्र का कवि जब घरमुहाँ होता है तो विकल्पहीनता में नहीं , अपनी इच्छा से। इन कवियों का इस उमर में घर लौटना जहाँ एक तरफ जीवन से इनके उत्कट राग का परिचायक है वहीँ दूसरी तरफ गंभीर मृत्यु- बोध का भी। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा की मृत्यु- बोध के ही कारण इनके यहाँ जीवन का यह राग उफनता और बलवान होता है। त्रिलोचन जानते हैं उनका मरना 'कौमन' नहीं है। वे उस ठण्ड से नहीं मर सकते जिस -
'ठण्ड से सब मरते हैं
जो चेतना की शिराओं को सुन्न कर देती है
और जीवन की ऊष्मा हर लेती है।'