शुक्रवार, 27 मार्च 2009

कविता का वर्त्तमान : कुछ नोट्स

युवा पीढी के रचनाकारों के बारे में बात करते हुए प्रायः कहानियों की ही चर्चा होती है। कहानियों को ही आधार बनाकर इस नई रचनाशीलता के मनोविज्ञान को समझाने-बताने की कोशिश की गई है। कुछ चर्चा है भी तो नसीहतों की भाषा में। जबकि ये कवितायें अब इतनी बचकानी नहीं हैं कि इन्हें इस प्रकार की शुरूआती नसीहतें दी जायें। अपने समय की बेहद सतर्क और चौकन्नी कवितायें हैं ये। इन कविताओं की हमसे एकमात्र अपेक्षा यह है कि हम इन्हें किनारे से, कुछ बचते हुए से देखकर न गुजरें बल्कि इनके भीतर पैठें और नजदीक से देखें कि आज के ये युवा कवि अपने से पहले के कवियों के साथ संबंधों की निरंतरता का निर्वाह किस ढंग से करते हैं।
एक बड़ी विशेषता इन कविताओं की यह है कि इन्हें पढने से पता चलता है कि ये कवितायें किस उम्र के कवियों ने लिखी हैं। पता चलने का कारण यह है कि इनमें से अधिकांश कवितायें स्वयं अनुभव की हुई, आत्मानुभूति की कवितायें हैं और इसीलिए एक उम्र विशेष की अनभूतियों की कवितायें हैं। उम्र विशेष की अनुभूतियों से सम्बंधित होने के कारण ही जीवन-जगत-प्रकृति के साथ इनका सम्बन्ध वस्तुपरक न होकर अनुभवपरक है। इन कविताओं की यह विशेषता है कि यहाँ अनुभूतियाँ हैं और अनुभूतियों की समर्थ अभिव्यक्ति भी है किंतु कहीं से भी अनुभूतियों के रूपांतरण की कोशिश नहीं है। यही कारण है कि इन कविताओं में कवियों के एन्द्रिक आत्मसातीकरण की जितनी झलक मिलती है उतनी तार्किक या बौद्धिक आत्मसातीकरण की नहीं। एन्द्रिक आत्मसातीकरण में एक प्रकार की तुलना करने की प्रवृत्ति अधिक होती है। एन्द्रिकता से तार्किकता की तरफ प्रस्थान के मध्यम से ही निजी अनुभव का सार्वजनीन अनुभव में रूपांतरण सम्भव है।
दूसरी तरफ ऐसा भी है कि इस प्रकार की एन्द्रियता की वजह से ही तमाम छोटी-छोटी और मामूली वस्तुएं जो पहले कविता के क्षेत्र से बाहर समझी जाती थीं, अब कविता का विषय बनने लगी हैं। इस नजरिये से ये कवितायें साधारण मानव की केवल साधारण अनुभूतियों की ही कविता नहीं है बल्कि साधारण वस्तुओं की भी कविता है। यह और बात है कि साधारण विषय- वस्तु को आधार बनाकर भी इन कवियों ने असाधारण काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया है। इनकी काव्य-प्रतिभा की असाधारणता इस बात में है कि इनकी कविता समझी जाने से पहले संप्रेषित हो रही है। पुराने शब्दों और उनके प्रचलित अर्थों के माध्यम से ही इन कवियों ने मौलिक प्रभाव छोड़नेवाली कवितायें लिखी हैं। इन कविताओं के प्रमाण से कहा जा सकता है कि मौलिकता न तो शब्दों में होती है और न ही अर्थ में बल्कि उनके विन्यास में होती है।
अनुभूति की निजता और एन्द्रिकता का ही यह प्रभाव है कि इन कवियों की नजरें अपने स्थानीय परिवेश पर जाकर टिक जाती है। यह और बात है कि इनके यहाँ स्थानीयता का फैलाव भी है। इनके स्थानीय परिवेश का दायरा स्वयं से शुरू होकर परिवार, गांवों से होते हुए महानगर तक जाता है किंतु महानगर में भी इन कवियों की पहली चिंता अपने गाँव-घर को खोज निकालने की है। यही कारण है कि न तो इन कवियों के यहाँ गाँव-घर के प्रति रोमांटिक किस्म की भावुकता है और न ही शहरों की चकाचौंध में इनकी आँखें ही चुंधियाती है।
इन सबकी चिंता एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में अपने परिवेश के बदलते चेहरे की चिंता है। कुछ है जिन्हें ये कवि बचाना चाहते हैं, कुछ और है जिनके न होने की आशंका से ही ये डर रहे हैं, कुछ और भी है और इतना अधिक है कि इनके लिए परेशानी और झुंझलाहट पैदा कर रही है। इस प्रकार की चिंता, डर, ऊब और खीझ इनकी सचेतनता का प्रमाण है। इनकी चिंताएं वास्तविक दुनिया और उसके वास्तविक संकटों से उत्पन्न वास्तविक चिंताएं हैं और इनका कोई वास्तविक समाधान इन्हें नहीं दिख रहा।
परिवेश से इस प्रकार की इनकी निकटता के ही कारण इनकी कविताओं में निपट अकेलापन नहीं है। इसी से इनके लिखने की वजहें भी कुछ अलग हैं। वस्तुतः जहाँ अकेलापन होता है वहां स्वयं अकेलापन ही लिखने का एक कारण बन जाता है। इन कवियों के यहाँ कविता लिखने की वजहें इनकी उम्र की स्वाभाविक आकांक्षाओं से उपजी हैं। ये कवि जीवन की विषमताओं को दूर करना चाहते हैं। विषमताओं को दूर करने की इनकी आकांक्षा ही इन्हें कच्ची-पक्की सच्चाइयों की तरफ ले जाती है बनिस्पत कि सुविधावादी मुलायम रस्ते के। इस नजर से इनकी कवितायें पूंजीवादी मानवविरोधी काव्यशास्त्र के विरोध का खुला दस्तावेज है। बाजार के दबाव ने अपने हित में संस्कृति का जिस प्रकार से अनुकूलन किया है उसके प्रतिपक्ष में अपनी दमदार उपस्थिति दर्जा कराती है ये कवितायें। न केवल बाजार की चालाकियों की बल्कि सत्ता और बाजार की बेपरवाह दुरभिसंधियों की भी स्पष्ट पहचान है इन नए कवियों को।

1 टिप्पणी:

  1. मिश्रजी
    सादर अभिवादन
    बहुत बढ़िया विचार अभिव्यक्ति और विचारणीय पोस्ट के धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं