सोमवार, 23 मार्च 2009

हिन्दी आलोचना में युवा उपस्थिति

आज का हिन्दी जगत युवा आलोचकों से खूब परिचित है और उनकी समझदारी पर रीझा हुआ भी। कहने को कह सकते हैं कि हिन्दी आलोचना का यह युवा काल है। दूसरी तरफ युवाओं के बीच से ही यह बात भी उभरकर आ रही है कि हिन्दी में आलोचना की संस्कृति का अभाव है। यह एक अलग बहस का विषय है कि यह शिकायत वाजिब है या कि गैरवाजिब। सोचने की बात यह है कि आलोचना कि संस्कृति के अभाव से उनका आशय क्या है? मेरी समझ से दो बातें हैं जिनकी बदौलत आलोचना की संस्कृति का निर्माण होता है- पहली बात है आलोचना के अधिकार की और दूसरी बात है आलोचना के विवेक की। इसलिए इन दोनों ही बातों के अभाव में हम आलोचना की संस्कृति के अभाव का कारण भी देख सकते हैं। बतौर एक पाठक हमें आलोचना करने का अधिकार है और हमारी इस आलोचना को विवेकसम्मत होना चाहिए।
आज की हिन्दी आलोचना में हम एक साथ ही दो विरोधी स्थितियां पाते हैं। एक तो यह कि आज कवियों की दुनिया, कहानीकारों की दुनिया या यों कहें कि रचनाकारों की दुनिया और आलोचकों की दुनिया में पर्याप्त फासला है। इस फासले की वजह से ही आलोचना और आलोचकों का रचना तथा रचनाकारों पर कोई सीधा- सार्थक हस्तक्षेप नहीं है। इस बात की कोई चिंता भी नहीं है। यही कारण है कि आलोचना की भूमि पर विधाओं की आपसी साझेदारी में भी कमी आई है। सीधे कहें तो कह सकते हैं कि आलोचना की रचनात्मकता का लोप होता जा रहा है। यही वजह है कि रचनाकार आलोचना में केवल अपना नाम खोजता है। यदि उसका नाम है ही तो वह क्योंकर पढ़े और यदि नहीं है तो क्यों पढ़े?
एक स्थिति ऐसी भी है कि आज के युवा कवि-कहानीकार स्वयं आलोचना के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। विशुद्ध आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय युवाओं कि संख्या बहुत कम है। हम जानते हैं कि यह प्रवृत्ति छायावाद के दौर में थी, बाद के नई कविता के दौर में भी एक सीमा तक थी। इसका कारण था रचनाकार के मनोनुकूल आलोचना का न होना। केवल अपने अनुकूल आलोचना की भूख के साथ आलोचना में सक्रिय रचनाकारों का बड़ा गहरा असर आलोचना विधा पर दिखाई देता है। लगभग इसी बात को कहते हुए एक कवि-आलोचक ने लिखा है -''जब दृश्य पर परस्पर विरोधी अनेक रचना द्रिस्तियाँ एक साथ सक्रिय हों तो अपना पक्ष रखने का नैतिक दबाव भी कवियों के आलोचना लिखने की एक वजह बीते दौर में बना है। फिलहाल ऐसा कोई दबाव नही है तो इसकी वजह यही है कि रचनात्मक विरोध नहीं विकसित हो पा रहे हैं और असहमतियां खीझों में बदल जा रही हैं।''
युवाओं के साथ दो बातें होती हैं। एक तो उनमें स्मृति और अनुभव की व्यापकता का एक सीमा तक अभाव होता है, जाहिर है उम्र के कम होने कि वजह से ही। अनुभव की व्यापकता के अभाव से उनमें कल्पना की व्यापकता का भी अभाव होता है। ये दोनों ही चीजें आलोचना के लिए बेहद जरूरी चीजें हैं। इनमे से कल्पना की व्यापकता का अभाव तो कुछ आलोचकों की प्रतिभा के पीछे चिप जाता है किंतु अनुभव की व्यापकता के अभाव की पूर्ति के लिए आलोचक उद्धरण शैली अपनाते हैं। अध्ययन की व्यापक और उद्धरणों की भरमार से स्मृति और अनुभव का बौनापन छिपाया जाता है। नतीजा सामने है आलोचना केवल आलोचना की आलोचना बनकर रह गई है।
युवा आलोचना का दायरा अक्सर समसामयिक होता है किंतु समसामयिकता को साधने के लिए जिस संतुलन की जरूरत होती है, उसे पाना आसान नहीं होता। समसामयिकता कई बार अराजक भी होती है। वह इस कारन से कि उसमे प्रसंसा भाव और पहचान कि प्रधानता होती है। प्रसंसा करने के लिए मजबूत निर्णयों और यथोचित मानदंडों की जरूरत होती है। सावधानी यहीं चाहिए। इस सावधानी के अभाव में आलोचना के पांडित्य प्रदर्शन मात्र बनकर रह जाने का खतरा होता है। इसी वजह से आलोचना की भाषा कई बार पत्रकारिता या कि ऍफ आई आर की भाषा हो गई है। पत्रकारिता की भाषा में हमेशा निष्कर्ष पहले होता है या कहें कि हावी होता है और तफसील उसके गिर्द जबकि साहित्यिक आलोचना में तफसील से ही नतीजे निकलते हैं।

1 टिप्पणी:

  1. अच्छा आलोचक बनने के लिए आलोचना की परंपरा से भी परिचित होना आवश्यक है। किसी कृति को अच्छा, बुरा, या मध्यम कहने की कसौटी क्या हो, यह भी महत्वपूर्ण है। क्या आलोचक के मानस पर बनी छाप ही अंतिम कसौटी है? इस मामले में हिंदी के आलोचकों की राय बिलकुल स्पष्ट रही है। आचार्य रामचंद्र शुल्क, जो हिंदी आलोचना के आदि पुरुष माने जा सकते हैं, स्पष्ट रूप से कहते हैं अच्छी कृति वही है जो लोग-हितकारी हो। शुल्क जी की परंपरा को आगे ले जानेवाले और हिंदी आलोचना को पराकांष्ठा तक पहुंचानेवाले डा. रामविलास शर्मा की भी लगभग यही राय थी। यही कारण था कि उन्होंने निराला, प्रेमचंद, अमृतलालनागर, को हिंदी के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार माना और अज्ञेय, जैनेंद्र, यशपाल,रांघेय राघव, राहुल सांस्कृतयायन, आदि लेखकों को निकृष्ठ नहीं तो व्यक्तिवादी कहा।

    क्या युवा आलोचकों के पास ऐसी कोई कसौटी है, जिस पर वे अपनी आलोचना को आधारित कर सकें? यही मुख्य सवाल है।

    जवाब देंहटाएं