बुधवार, 18 मार्च 2009

'रंगों के पीछे रंग'

'रंगों के पीछे रंग '
मैं बच्चा था
सिर्फ़ सफेदी पहचानता था
दांतों की नहीं, दूध की।

कुछ दिनों के बाद
मैंने हर रंग को छुआ
फिर भी वे रंग मुझसे अन्छुए ही थे।

जानता था केवल
अपने गुब्बारे का गुलाबी होना
अधिक से अधिक
उसमे रखे रोटी का रंग
और उसके ब्लैक एंड व्हाइट होने पर हंसता था।

फिर देखा मैंने
अपना ही लाल खून
गिल्ली की एक चोट से।

घास के मैदानों में देखी हरियाली
अछा लगा, देखता रहा।


आज! अब मैं सभी रंग पहचानता हूँ
जानता हूँ उनकी रंगीनी
अब मेरे लिए सफेदी का वही मतलब नहीं है
क्योंकि देख लिया है मैंने दूध से वंचित बच्चों को।

अब रोटी का वही पहलेवाला रंग मुझे नहीं खींचता
उसके ब्लैक एंड व्हाइट होने के
पीछे की सफेदी और कालिमा मुझे करने लगी है परेशान
क्योंकि सामना हो चुका है मेरा रोटी-रोटी रटते भूखों से।

ख़ुद का ही लाल खून अब मुझे पानी दीखता है,
जबसे देखा है मैंने
साथ चलते को मारा जाना चाकू
और निकलना खून की धार का।

मेरे लिए अब हरियाली भी वैसी न रही
क्योंकि समझ चुका हूँ मैं की
जिनकी बदौलत दिखती है हरियाली
ख़ुद हरियाली उनसे koson दूर है।

अब मैं रंगों के पीछे का रंग
देखने लगा हूँ।


3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रभात जी जितनी भी तारीफ़ की जाए वो कम है ....खासकर

    अब मेरे लिए सफेदी का वही मतलब नहीं है
    क्योंकि देख लिया है मैंने दूध से वंचित बच्चों को।

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  2. बहुत सुन्दर रचना . कभी मेरे ब्लॉग का अवलोकन करने का कष्ट करें

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  3. अच्छी कविता के लिए आपको साधुवाद

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