साहित्य और साहित्यकार की स्थिति को प्रभावित करनेवाला एक प्रमुख कारक प्रकाशन व्यवसाय है। इसलिए साहित्य और साहित्यकार की स्थिति का विवेचन प्रकाशन व्यवसाय की चर्चा के बिना अधूरा ही रहेगा। प्रकाशकों का सारा ध्यान आज किताबों को जैसे-तैसे बेचने पर है इसलिए जाहिर है बाज़ार में बिकनेवाली किताबों को ही छापने पर है। प्रकाशकों के बीच से इस सवाल का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है, या कहें कि उसका दायरा बहुत छोटा हो गया है कि वे क्या छापने जा रहे हैं। आज इस सवाल का मतलब उनके लिए 'बाज़ार में चलनेवाली है कि नहीं' इसी तक सीमित हो गया है। इतना ही नहीं कई बार तो प्रकाशक ही यह भी तै कर देते हैं कि बाज़ार में कौन सी किताब बेचीं जायेगी। इस मामले में प्रकाशकों के एकाधिपत्य का आलम यह है कि लेखक-रचनाकार पहले तो किताब लिखे, फिर उसे छपवाने के लिए प्रकाशकों के पीछे दौडे, यहाँ तक कि पैसा भी ख़ुद ही लगाए और छप जाने के बाद लेखक ही उसके बेचने की व्यवस्था भी करे। इस भीषण चक्रव्यूह में घिरे रचनाकार से हम किस नैतिकता के तहत छल-छद्म से लड़ने और समाज के कदम से कदम मिलाकर चलने की और समाज कि चिंता ही करने की अपेक्षा कर सकते हैं।
प्रकाशकों की सबसे बड़ी चिंता सरकारी संस्थाओं द्वारा किताबों की थोक में खरीद से सम्बंधित है। यह कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि कई किताबों को तो छापा ही इसलिए जाता है कि उन्हें पुस्तकालयों में खपाया जा सके। और तो और प्रकाशक ही लेखकों के पास अब यह प्रस्ताव भी भेजने लगे हैं कि अमुक तारीख तक आप इस विषय पर एक किताब लिख दीजिये, अभी इसका मार्केट है और ऐसे लेखकों कि भी कमी नहीं है जो प्रकाशक के निर्देशानुसार तै समय पर सामग्री उन्हें उपलब्ध करा देते हैं। मानो किताब न होकर कोई माल हो। जब भी कोई चर्चित वाकया होता है तो उस विषय पर तुरत ही किताबों की लायन लग जाती है। आईपीएल मैचों के इस दौर में देखा जा सकता है कि कई किताबें ऐसी आयीं हैं जो क्रिकेट का इतिहास-पुराण बता रही हैं।
aapne aaj ke yug ka ek katu satya ujagar kiya hai.dhanyavaad
जवाब देंहटाएंaap ne bilkul sahi kaha hai
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