शनिवार, 11 अप्रैल 2009

हिन्दी समाज में साहित्य ...

आज का हिन्दी समाज एक ऐसा समाज है जिसमें एक तरफ वैश्वीकरण का शोर है तो दूसरी तरफ स्कूलों की ढहती इमारतें हैं, एक तरफ चमक-दमक और ऐश्वर्य है तो दूसरी तरफ पेट भरने की जुगत में पिसती अधिसंख्य आबादी है, एक तरफ 'ब्रांडेड फैशन' और उसके प्रचार में लगी विशालकाय होर्डिंगें हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं चौराहों पर मजदूरों की फौज काम की तलाश में मानो उन्हीं होर्डिंगों का मुंह चिढा रही हो, एक तरफ गरीबों के सरकारी कोष से अरबों का गबन है तो दूसरी तरफ अमीरों के बटुए भी मारे जा रहे हैं, एक तरफ संस्कृति की रक्षा के नाम पर कलात्मक प्रदर्शनियां हैं तो दूसरी तरफ लोकगीत गानेवाले कलाकार गुमनामी के अंधेरे में खोते जा रहे हैं, एक तरफ साहित्य में शाश्वत और सार्वभौम का छल है तो दूसरी तरफ क्रांति के मोहक सपने भी....
यह कहना कुछ लोगों के लिए असुविधाजनक तो हो सकता है लेकिन दुःख इस बात का है कि इस बात को लेकर किसी को भी अफसोस नहीं है कि आज के साहित्य का नियंता बाजार बन चुका है। बहुत विस्तार में न भी जाएँ तो अब यह समझना मुश्किल नहीं है कि बाजार जिसमें एक ही नियम चलता है खरीदने और बेचने का। इस वजह से साहित्य की दुनिया भी बिल्कुल एकरस हो गई है। बाजार के प्रतिकूल प्रभाव से साहित्य और संस्कृति की दुनिया में व्याप्त अनेकरूपता और विशिष्टता का लोप हो गया है और एक नीरस एकरूपता कायम है जिससे नई रचनाशीलता कुंद होती है।
और सब बातों को छोड़ भी दें तो केवल साहित्यिक विधाओं की वर्तमान स्थिति से इसे बेहतर समझा जा सकता है। कविता कि सार्थकता और निरर्थकता को लेकर जितनासवाल आज खड़े किए जा रहे हैं उनसे कविता मात्र पर संकट गहरा रहा है। यूँ ही नहीं है कि आज के प्रायः सभी कवि अपनी कविता में कविता के ही जीवित बचे रहने की घोषणा करते दिखाई पड़ते हैं। मार्क्स ने कहा भी था कि पूंजीवादी उत्पादन कला और कविता का दुश्मन है। वस्तुतः आज के हिन्दी समाज में कविता के सामने एक बड़ा संकट संस्कृति के उद्योग का विस्तार है। संस्कृति के उद्योग से उपभोग की संस्कृति विकसित होती है और उपभोग की संस्कृति केवल उपभोग की वस्तुएं ही पैदा नहीं करती बल्कि उपभोग की इच्छा भी पैदा करती है। इसी कारण से आजकल कविता जैसी विधा सांस्कृतिक जीवन के हाशिये पर जीने को मजबूर है।
कहानी और उपन्यास का क्षेत्र आज भी अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित है क्योंकि उसमें पूंजीवादी सभ्यता और उपभोग की संस्कृति के अनुरूप रोमांस, उत्सुकता, आश्चर्य और उत्तेजना के लिए अधिक अवकाश है। जहाँ तक नाटकों की बात है तो यह दो टूक लहजे में कहा जा सकता है कि आज नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं। बाजार और बाजार की संस्कृति की सबसे ज्यादा मार नाटकों पर ही पड़ी है और पूंजीवादी सभ्यता की प्रतिनिधि कला फिल्म के सामने वह कहीं भी नहीं टिक पा रहा। संभवतः इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण पूंजीवादी सभ्यता से इसके अनिवार्य विरोध में निहित है। वस्तुतः नाटक सामूहिकता की अपेक्षा करता है, जिसमे विभिन्न कलाओं का आपसी संयोग होता है और इन कारणों से वह स्वभावतः ही लोकतान्त्रिक होता है। अब किसी लोकतान्त्रिक स्वाभाव की विधा का पूंजीवादी अधिनायकतंत्र में कैसे गुजारा हो सकता है।
यह नही है कि इसका प्रभाव केवल रचना पर पड़ा है बल्कि आज की हिंदी आलोचना भी इन विपरीत परिस्थितियों से अचुती नहीं है। आज के हिन्दी आलोचकों के बारे में यह आम धारणा है कि जो कविता, कहानी, उपन्यास आदि नहीं लिख सकता और लेखक कहलाना चाहता है वही आलोचना के क्षेत्र में आता है। आज आलोचना की एक निश्चित सी शब्दावली हो गई है - मिटटी से जुडाव, द्वंद्व, टकराव, संघर्ष, सामंजस्य, जिजीविषा, व्यापकता, सरोकार आदि - जिसके मध्यम से हम आलोचना के असामाजिक हो जाने का सहज ही अनुमान कर सकते हैं।

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