गुरुवार, 12 मार्च 2009



तुम से…

यह मानने में हमें कोई परेशानी नहीं
कि हम अपना सब कुछ
जंगल से ही पाते हैं
लेकिन,
यह इतना बड़ा कारण तो नहीं
कि तुम हमें जंगली कहकर बुलाओ।

माना कि हमारी भाषा
नहीं अँटती ठीक-ठीक
तुम्हारी बनाई
भाषा की परिभाषा में
लेकिन,
इसी वजह से
तुम हमें मूक समझो
यह तो अच्छा नहीं ।

हम नहीं जानते
कैसे बना लेते हो तुम
चमकीले-चटख रंग
न जाने किस चीज से बनते हैं
जिसे तुम ब्रुश कहते हो
किन्तु, हमने अपनी दीवारों पर
जो छवियाँ थापी हैं
उन्हें तुम चित्र न कहना चाहो, न सही
उन पर हँसना तो ठीक नहीं ।

ठीक है कि हमें नहीं है जरूरत
जिसे तुम ‘अण्डरगारमेण्ट’ कहते हो
टाय-रूमाल कहते हो
जुराबें-मोजे कहते हो
चल जाता है
चला लेते हैं हम काम
कपड़े के एक ही टुकड़े से
मगर, यह ऐसी भी बात नहीं
कि तुम हमें असभ्य कहो ।

तुमने बनाए हैं
मंदिर-मस्जिद-गिरजे
अपने-अपने धर्म के हिसाब से
हमने तो
पहाड़ को, नदी को, जंगल को ही
माना भगवान क घर
लेकिन, इतने से ही तो हम
विधर्मी नहीं हो जाते ।

हम नहीं जानते
तुम्हारे उस सैण्डविच के बारे में
क्या होता है, कैसा स्वाद
पिज्जा और बर्गर का
पता नहीं
कैसे सुहाता है तुम्हें
खाते हुए भी छुरियों का साथ
हमें तो भात भर मिल जाए
भाजी मिले न मिले, बहुत है
आखिर, मनुष्य बने रहने के लिये
खाना जरूरी है, न कि बर्गर खाना
लेकिन तुम यह क्योंकर मानोगे ?

तुम्हें भाषा नहीं
तुम्हारी भाषा चाहिए ।
तुम्हें सभ्यता नहीं
तुम्हारी सभ्यता चाहिए ।
तुम्हें मनुष्य नहीं
तुम्हारे जैसा मनुष्य चाहिए ।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

अनामिका का 'एक ठो शहर : एक गो लड़की'

शहर जन्म लेते हैं , पता नहीं किस कोख से और किस पल में चुपचाप। शहर के जन्म लेते ही शहर की माँ मानो बिला जाती है। फिर शहर अपनी 'माँ' को खोजते हुए ही बड़ा होता है, फैलता है, लेकिन 'माँ' ... यह नहीं की 'माँ' अब नहीं होती। वो होती है बल्कि और अधिक सक्रिय, और अधिक चौकन्नी और देखती रहती है अपने ही जाये शहर को कहीं बनते हुए और कहीं ढहते हुए भी। शहर में कुछ भी ढहना 'माँ' को आहत कर जाता है, 'माँ' बेचैन होती है। शहर की इस 'माँ' को हेरने-ताकने और बचाने की गाथा है अनामिका का 'एक ठो शहर : एक गो लड़की' , एक शहरगाथा। ''वैसे जो चीजें नजर नहीं आतीं - वे हो तो सकती हैं ; ख्वाबों- ख्यालों में ! स्मृतियों में और विस्मृतियों में भी !'' कहते हुए अनामिका पूरे शहर की धड़कन सुनती हैं, नब्ज टटोलती हैं और उन्हें लगता है किया शहर बुखार में तप रहा है , इसे 'माँ' के शीतल-स्निग्ध स्पर्श की जरूरत है और वो 'माँ' को , शहर के शहरपन को अर्थ देनेवाली स्थितियों को उकेरने लगती हैं।
पूरी किताब एक कविता है, एक लम्बी कविता। कविता की चपलता, गति, लहर, उतर-चढ़ाव और बंधन सभी कोनों से कविता। कविता का उठान, कविता का विन्यास- वितान और कविता की फिसलन सभी कुछ है इसमें। कहना तो यह चाहिए की यह फिसलन ही इसे कविता बनाती है।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

त्रिलोचन का आखिरी संग्रह 'मेरा घर'

जीवन के आखिरी हिस्से में कोई कवि क्यों घर लौटता है , कवि ही नहीं कोई व्यक्ति अपने घर क्यों लौटता है? निराशा में , हताशा में , हर जगह से ठुकराए जाकर , विकल्पहीनता और मजबूरी में या मोहग्रस्तता और कमजोर मनःस्थिति में। ये सभी कारण हो सकते हैं , पर क्या इतने ही ? केवल इतनी बात नहीं हो सकती। नागार्जुन - त्रिलोचन का घर लौटना 'लौट के बुद्धू का घर आना' नहीं है। इन कवियों ने उस अर्थ में कभी घर छोड़ा ही नहीं, जहाँ भी गए घर को लादे-लादे गए। इसलिए नागार्जुन -त्रिलोचन की उम्र का कवि जब घरमुहाँ होता है तो विकल्पहीनता में नहीं , अपनी इच्छा से। इन कवियों का इस उमर में घर लौटना जहाँ एक तरफ जीवन से इनके उत्कट राग का परिचायक है वहीँ दूसरी तरफ गंभीर मृत्यु- बोध का भी। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा की मृत्यु- बोध के ही कारण इनके यहाँ जीवन का यह राग उफनता और बलवान होता है। त्रिलोचन जानते हैं उनका मरना 'कौमन' नहीं है। वे उस ठण्ड से नहीं मर सकते जिस -
'ठण्ड से सब मरते हैं
जो चेतना की शिराओं को सुन्न कर देती है
और जीवन की ऊष्मा हर लेती है।'